जय क्षात्र धर्म की मित्रों , आज हमने कुछ समय पहले एक पोस्ट श्रृंखला शुरू की थी जिसमे आपको पोस्ट के माध्यम 1857 की क्रांति में महान राजपूत नायकों द्वारा दिए गए योगदानो से अवगत कराना था। आज उसी श्रृंखला में आगे बढ़ते हुये बुंदेलखंड के महान नायक क्रांतिवीर योद्धा बरजीर सिंह के बारे में बताएँगे। कृपया इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा पढ़ें और शेयर करें।
^^^^^प्रथम स्वातंत्र्य समर के योद्धा क्रांतिवीर बरजीरसिंह^^^^
सन १८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर में देश के कोने कोने में स्वतंत्रता प्रेमियों ने अंग्रेजो को कड़ी चुनौती दी थी। इस महासंग्राम में देश की जनता ने भी क्रांतिकारियों का पूरा साथ दिया। क्रांति के इस महायज्ञ में अनेक वीरो ने अपने जीवन की आहुतियाँ दी थी। उनमे से कुछ सूरमा ऐसे भी थे,जो जीवन भर अंग्रेजो से संघर्ष करते रहे लेकिन कभी अंग्रेजो की गिरफ्त में नहीं आए। ऐसे ही एक योद्धा थे बरजीर सिंह।झाँसी और कालपी के मध्य में स्थित बिलायाँ गढ़ी के बरजीर सिंह ने अंग्रेजो का सामना करने के साथ साथ क्षेत्र में जनसंपर्क द्वारा जनजागृति का महत्वपूर्ण कार्य किया। जब झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई झांसी से कालपी जा रही थी तो रास्ते में बरजीर सिंह ने उनसे भेंट की। रानी के निर्देशानुसार इस वीर ने क्षेत्र के गाँव गाँव में घूम घूमकर जनजागरण कर क्रांतिकारियों की शक्ति को कई गुना बाधा दिया। बरजीरसिंह ने कालपी की लड़ाई में प्राणप्रण से भाग लिया,लेकिन दुर्भाग्यवश २३ मई १८५८ को कालपी भी स्वातंत्र्य सैनिको के हाथ से निकल गई। बरजीरसिंह ने अब झाँसी-कालपी मार्ग के प्रमुख ठिकानो के स्वतंत्रता प्रेमियो को संगठित करके अंग्रेजो की नींद हराम कर दी। उन्होंने अपने साथियों गंभीर सिंह तथा देवीसिंह मोठ के साथ ब्रिटिशों के ठिकानो पर हमले शुरू कर दिए।
उधर झाँसी की रानी ने ग्वालियर पर कब्ज़ा कर अंग्रेजो को करारा तमाचा लगाया तो इधर बरजीरसिंह ने अंग्रेजो के ठिकानो को कब्जे में लेना शुरू कर दिया। कालपी के बाद बिलायाँ गढ़ी क्रांतिकारियों का केंद्र बन गई।झाँसी के क्रन्तिकारी काले खां,बरजीरसिंह,दौलतसिंह,गंभीरसिंह तथा देवीसिंह के साथ साथ सैदनगर,कोंटरा,संवढा,भांडेर आदि अनेक स्थानों के सैंकड़ो स्वतंत्रता प्रेमी बिलायाँ में एकत्रित हो गए।३१ मई १८५८ को मेजर ओर के नेतृत्व में एक बड़ी सेना ने बिलायाँ गढ़ी पर आक्रमण कर दिया। ब्रिटिशो की तोपों ने गढ़ी पर गोलीबारी शुरू की तो बरजीरसिंह घोड़े पर सवार होकर तथा ध्वज लेकर अपने साथियों सहित मैदान में आ डटे।
क्रांतिवीरो ने भीषण युद्ध किया। इस युद्ध में अंग्रेजो को बुरी तरह से रौंदते हुए बरजीर सिंह भी घायल हो गए। तब उनके कुछ साथी उन्हें अश्व से उतारकर वेतवा की ओर ले गए तथा एक साथी मोती गुर्जर ,,बरजीर सिंह के घोड़े पर ध्वज लेकर युद्ध में सन्नध हो गया। अंग्रेजो को बरजीरसिंह के निकलने का पता भी न चला। स्वातंत्र्यवीरो ने गोरो की सेना से जमकर लोहा लिया। अंत में मोती गुजर व अन्य ३४ सैनिको को बंदी बना लिया गया। इस युद्ध में लगभग १५० क्रांतिकारी शहीद हुए। मोती गुर्जर को अंग्रेजो ने फांसी पर लटका दिया। बरजीरसिंह ने कुछ ही दिनों में स्वस्थ होलर अंग्रेजो का पुनः विरोध शुरू कर दिया।
बरजीरसिंह अब तात्या तोपे के दाहिने हाथ बन गए।तात्या के उस क्षेत्र से दूर जाने के बाद उस क्षेत्र में क्रांति की गतिविधियों की बाग़डोर अब बरजीरसिंह ने संभाल ली। उन्होंने अंग्रेजो के साथ छुटपुट लड़ाईयाँ लड़ते हुए संघर्ष जारी रखा। २ अगस्ट १८५८ को क्रांति सेना ने उनके नेतृत्व में जालौन ले अंग्रेज समर्थक शासक को हटाकर जालौन पर अधिकार कर लिया। बरजीरसिंह की सेना और अंग्रेजो के युद्ध में ४ सितम्बर १८५८ को महू-मिहौनी तथा ५ सितम्बर को सरावन-सहाव की लड़ाई विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन लड़ाईयो में स्वतंत्रता प्रेमियों ने अंग्रेजो के दांत खट्टे कर दिए।अंग्रेजी शासको ने उन्हें मारने या पकड़ने के अनेक प्रयास किए लेकिन वे जीवनभर विदेशियों की पकड़ में नहीं आये। अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे अपनी बहन के पास पालेरा(जिला टिकमगढ़,म.प्र.)चले गए जहाँ १८६९ में उनका निधन हो गया।बरजीरसिंह की स्मृति में बिलायाँ में १९७२ में एक स्मारक बनाया गया जो आज भी मौजूद है।
सन्दर्भ-
१)सदर लेख सनावद,मध्य प्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका "#प्रतापवाणी" के मई-जून २०१० के महाराणा प्रताप विशेषांक से लिया गया है।
नोट:credits to anonymous writer.
^^^^^प्रथम स्वातंत्र्य समर के योद्धा क्रांतिवीर बरजीरसिंह^^^^
सन १८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर में देश के कोने कोने में स्वतंत्रता प्रेमियों ने अंग्रेजो को कड़ी चुनौती दी थी। इस महासंग्राम में देश की जनता ने भी क्रांतिकारियों का पूरा साथ दिया। क्रांति के इस महायज्ञ में अनेक वीरो ने अपने जीवन की आहुतियाँ दी थी। उनमे से कुछ सूरमा ऐसे भी थे,जो जीवन भर अंग्रेजो से संघर्ष करते रहे लेकिन कभी अंग्रेजो की गिरफ्त में नहीं आए। ऐसे ही एक योद्धा थे बरजीर सिंह।झाँसी और कालपी के मध्य में स्थित बिलायाँ गढ़ी के बरजीर सिंह ने अंग्रेजो का सामना करने के साथ साथ क्षेत्र में जनसंपर्क द्वारा जनजागृति का महत्वपूर्ण कार्य किया। जब झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई झांसी से कालपी जा रही थी तो रास्ते में बरजीर सिंह ने उनसे भेंट की। रानी के निर्देशानुसार इस वीर ने क्षेत्र के गाँव गाँव में घूम घूमकर जनजागरण कर क्रांतिकारियों की शक्ति को कई गुना बाधा दिया। बरजीरसिंह ने कालपी की लड़ाई में प्राणप्रण से भाग लिया,लेकिन दुर्भाग्यवश २३ मई १८५८ को कालपी भी स्वातंत्र्य सैनिको के हाथ से निकल गई। बरजीरसिंह ने अब झाँसी-कालपी मार्ग के प्रमुख ठिकानो के स्वतंत्रता प्रेमियो को संगठित करके अंग्रेजो की नींद हराम कर दी। उन्होंने अपने साथियों गंभीर सिंह तथा देवीसिंह मोठ के साथ ब्रिटिशों के ठिकानो पर हमले शुरू कर दिए।
उधर झाँसी की रानी ने ग्वालियर पर कब्ज़ा कर अंग्रेजो को करारा तमाचा लगाया तो इधर बरजीरसिंह ने अंग्रेजो के ठिकानो को कब्जे में लेना शुरू कर दिया। कालपी के बाद बिलायाँ गढ़ी क्रांतिकारियों का केंद्र बन गई।झाँसी के क्रन्तिकारी काले खां,बरजीरसिंह,दौलतसिंह,गंभीरसिंह तथा देवीसिंह के साथ साथ सैदनगर,कोंटरा,संवढा,भांडेर आदि अनेक स्थानों के सैंकड़ो स्वतंत्रता प्रेमी बिलायाँ में एकत्रित हो गए।३१ मई १८५८ को मेजर ओर के नेतृत्व में एक बड़ी सेना ने बिलायाँ गढ़ी पर आक्रमण कर दिया। ब्रिटिशो की तोपों ने गढ़ी पर गोलीबारी शुरू की तो बरजीरसिंह घोड़े पर सवार होकर तथा ध्वज लेकर अपने साथियों सहित मैदान में आ डटे।
क्रांतिवीरो ने भीषण युद्ध किया। इस युद्ध में अंग्रेजो को बुरी तरह से रौंदते हुए बरजीर सिंह भी घायल हो गए। तब उनके कुछ साथी उन्हें अश्व से उतारकर वेतवा की ओर ले गए तथा एक साथी मोती गुर्जर ,,बरजीर सिंह के घोड़े पर ध्वज लेकर युद्ध में सन्नध हो गया। अंग्रेजो को बरजीरसिंह के निकलने का पता भी न चला। स्वातंत्र्यवीरो ने गोरो की सेना से जमकर लोहा लिया। अंत में मोती गुजर व अन्य ३४ सैनिको को बंदी बना लिया गया। इस युद्ध में लगभग १५० क्रांतिकारी शहीद हुए। मोती गुर्जर को अंग्रेजो ने फांसी पर लटका दिया। बरजीरसिंह ने कुछ ही दिनों में स्वस्थ होलर अंग्रेजो का पुनः विरोध शुरू कर दिया।
बरजीरसिंह अब तात्या तोपे के दाहिने हाथ बन गए।तात्या के उस क्षेत्र से दूर जाने के बाद उस क्षेत्र में क्रांति की गतिविधियों की बाग़डोर अब बरजीरसिंह ने संभाल ली। उन्होंने अंग्रेजो के साथ छुटपुट लड़ाईयाँ लड़ते हुए संघर्ष जारी रखा। २ अगस्ट १८५८ को क्रांति सेना ने उनके नेतृत्व में जालौन ले अंग्रेज समर्थक शासक को हटाकर जालौन पर अधिकार कर लिया। बरजीरसिंह की सेना और अंग्रेजो के युद्ध में ४ सितम्बर १८५८ को महू-मिहौनी तथा ५ सितम्बर को सरावन-सहाव की लड़ाई विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन लड़ाईयो में स्वतंत्रता प्रेमियों ने अंग्रेजो के दांत खट्टे कर दिए।अंग्रेजी शासको ने उन्हें मारने या पकड़ने के अनेक प्रयास किए लेकिन वे जीवनभर विदेशियों की पकड़ में नहीं आये। अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे अपनी बहन के पास पालेरा(जिला टिकमगढ़,म.प्र.)चले गए जहाँ १८६९ में उनका निधन हो गया।बरजीरसिंह की स्मृति में बिलायाँ में १९७२ में एक स्मारक बनाया गया जो आज भी मौजूद है।
सन्दर्भ-
१)सदर लेख सनावद,मध्य प्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका "#प्रतापवाणी" के मई-जून २०१० के महाराणा प्रताप विशेषांक से लिया गया है।
नोट:credits to anonymous writer.
जय राजपुताना
ReplyDeleteJay bundelkhand
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