गैर राजपूत राजवंश और उनके राजपूत पूर्वज Part 2===============
पटियाला राजपरिवार,फूलकियाँ रियासत व सिद्धू बराड़ भट्टी जाट====
मित्रों पिछले भाग 1 में हमने बताया था कि किस प्रकार भरतपुर के सिनसिनवार जाट राजवंश की उत्पत्ति जादौन राजपूत पुरुष और जाट कन्या के विवाह से उत्पन्न संतान से हुई..
इस भाग 2 में हम आपको हरियाणा और पंजाब के सिद्धू बराड़ सिख जाट राजवंशो जैसे पटियाला,नाभा,जीन्द,फरीदकोट,कैथल की उत्पत्ति किस प्रकार यदुवंशी भाटी राजपूतो से हुई इस सम्बन्ध में विस्तार से बताएँगे.......
पटियाला राजपरिवार व भट्टी जट्ट (जाट) सिख वंश की उत्पत्ति जैसलमेर के भाटी राजपूत राव जैसल से मानी जाती है।पटियाला राजपरिवार अपनी वंशावली राव जैसल के तीसरे पुत्र राय हेम से शुरू मानता है। ऐसी मान्यता है की राय हेम का अपने परिवार से किसी कारणवश वाद विवाद हुआ जिस कारण उन्होंने घर छोड़ कर जाना पड़ा। उस समय भाटी राजपूतों का राज पश्चिमी राजस्थान में जैसलमेर से लेकर भटनेर ( हनुमानगढ़) और पंजाब के भटिंडा तक था और साथ ही साथ आज के पश्चिमी पाकिस्तान के भी कुछ हिस्से भाटियो के कब्जे में थे। राय हेम अपने परिवार से विस्थापित हो कर भटनेर और भटिंडा के तरफ बढे और अपने पूर्वजो की भूमि से राज शुरू किआ। भटनेर गढ़ आज भी राजस्थान के हनुमानगढ़ शहर में स्थित है तथा इसे भारत के बचे हुए प्राचीनतम गढ़ों में से एक माना जाता है जो आज से तकरीबन 17०० साल पहले राय भूपत जिनसे यदु कुल भाटी वंश का उद्गम माना जाता है,उन्होंने स्थापित किया था।
कहा जाता है राव हेम की चौथी पीढ़ी में राव खींवा का जनम हुआ।राय खींवा को कोट लाडवा पंजाब की और हटना पड़ा और वहां उन्होंने एक जाट स्त्री से विवाह किया और इस कारण उन्हें राजपूत समाज से बाहर का रास्ता देखना पड़ा। राव खींवा के वंशजो ने जाट जाति में रिश्ते करने शुरू किये तथा इनके वंशज इसी जाट जाति में मिल गए। इस घटना के बाद राव खींवा तथा पंजाब के शुद्ध भाटी राजपूतो में काफी बार युद्ध छिडे। इसी दौरान संन 1526 में मुग़लों ने राव खींवा के जाट वंशज राव मेहराज को अपने दरबार में स्थान दिया और यह गद्दी राव फूल तक मुगलो के दरबार में पुश्तैनी बनी रही।राव फूल इस वंश के पहले सिख वंशज हुए।
इस वंश की वंशावली इस प्रकार है :
इस वंश की वंशावली इस प्रकार है :
महाराव जैसल भाटी (राजपूत)जैसलमेर के निर्माता - राय हेम - जयद्रथ (जुन्दर) -
पते राव - मंगल राओ - आनंद राव - राव खींवा ( राजो नमक दुलकोट की जाटनी से शादी की और इनका वंश जाटों में चला गया ) - सिद्धू ( सिद्धू जाटों के पूर्वज ) - भर - बीर - सत्राजात - जेरथा - माहि - काला ( गोला ) - मेहराज - हमीरा - राव बरार ( बरार जट्ट सिखो के पूर्वज ) - पौर - बैरी - कायेन - बहो - सांघर - नेली के चौधरी वरियाम ( बीरम ) - चौधरी मेहराज - चौधरी सत्तू - चौधरी पाखु - मेहराज के चौधरी मोहन.
चौधरी पाखु के छोटे बेटे चौधरी मोहन का परिवार के साथ विवाद हुआ तथा वो अपनी रिश्तेदारो के यहाँ हिसार और हाँसी की तरफ चले आये। यहाँ इन्होने एक बड़ी सेना का निर्माण किया और अपने परिवार के विरुद्ध जंग की। इस युद्ध में चौधरी मोहन विजयी हुए तथा इन्होने ने सिखो के छठे गुरु हर गोविन्द सिंह की आज्ञा के अनुसार अपने परदादा के नाम पर मेहराज नमक गढ़ की स्थापना की।
चौधरी मोहन ने दो शादिया की व इनके छ बच्चे पैदा हुए। जिनमे से एक चौधरी रूप चंद थे। चौधरी रूप चन्द्र को दो संतान उत्पन्न हुई जिनमे से एक चौधरी फूल थे। फूल को फुलकिया भाटी शाखाओ का पूर्वज माना जाता है। फूल के 6 पुत्र हुए जिनमें से तिलोका फूल सबसे बड़े थे जिनके वंशजों ने पंजाब के नाभा और जींद पर कब्ज़ा किया। दुसरे पुत्र तथा उसके वंशजो ने पटियाला , बहादुर कोट दूम तथा मलौढ़ पर राज किया। संन 1627 में चौधरी फुल ने फूल नमक शहर की स्थापना की तथा उसे अपना नाम लिया यह क़स्बा नाभा राज्य में काफी महत्वपूर्ण था। फुल्ल के एक पुत्र राम ने रामपुर फुल्ल नमक शहर पंजाब में बसाया तथा पंजाब में बसे बाकि शुद्ध राजपूत भाटियो पर हमले किये (उस समय तक दक्षिणी पंजाब में भाटी राजपूतो का अच्छा प्रभुत्व था। भटिंडा गढ़ भी भाटी राजपूतों ने बसाया था तथा भटिंडा शहर का नाम भी भाटी राजपूत वंश पर पड़ा है)।
इस प्रकार पंजाब में जिस भाटी राजपूत वंश का बड़ा प्रभाव था उसके बहुत से वंशज जाटों में विवाह कर सिख धर्म अपनाकर जट्ट सिख सिद्धू बराड़ (भट्टी जाट)बन गए,बहुत से भाटी राजपूत मुगल काल में मुसलमान बन गये और आज पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में बड़े बड़े जमीदार मुस्लिम भाटी राजपूत हैं,अब पंजाब में बहुत कम शुद्ध हिन्दू भाटी राजपूत बचे हैं .... पास ही में बसे हिमाचल के सिरमौर राज्य के भाटी राजपूत व राजपरिवार और उत्तर हरयाणा व दक्षिणी पंजाब में बसे तानवी शाख के भाटी राजपूत इन्ही सिख भट्टी जट्ट के दूर के शुद्ध क्षत्रिये भाई बंधू है।
फुलकियां जाट सरदारों के दिल्ली दरबार में सम्बन्ध शुरुवात से ही अच्छे रहे। मुगलों से इन्हे काफी उपाधियाँ मिली वे पदवियां मिली। महादजी सिंधिया के उत्तर भारत में आक्रमण के दौरान यह मराठाओं के प्रभुत्व में रहे तथा सन 1803 में जब अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर कब्ज़ा किया यह इनके प्रभुत्व में रहे। पटियाला नाभा जीन्द फूलकियां रियासते कहलाती है.
महाराजा अमरिंदर सिंह पटियाला राजघराने व भट्टी सिख जाटो के वर्तमान मुखिया है। पटियाला राजपरिवार आज भी यदुवंश कुलभूषण नाम की उपाधि धारण करता है ऐसी कई उपाधियाँ इन्हे मुगलो और अंग्रेजो के समय मिली थी।
सबसे बड़ी बात ये है कि ये सिख जाट राजवंश अपनी उत्पत्ति राजपूतो से मानने में कोई शर्म नहीं करते और इनके राजपूत राजपरिवारो से अच्छे सम्बन्ध हैं.
महाराजा अमरिंदर सिंह पटियाला राजघराने व भट्टी सिख जाटो के वर्तमान मुखिया है। पटियाला राजपरिवार आज भी यदुवंश कुलभूषण नाम की उपाधि धारण करता है ऐसी कई उपाधियाँ इन्हे मुगलो और अंग्रेजो के समय मिली थी।
सबसे बड़ी बात ये है कि ये सिख जाट राजवंश अपनी उत्पत्ति राजपूतो से मानने में कोई शर्म नहीं करते और इनके राजपूत राजपरिवारो से अच्छे सम्बन्ध हैं.
किन्तु अब हरियाणा उत्तर प्रदेश राजस्थान के बहुत से जाट इस वास्तविकता पर शर्मिंदा होकर इसे छुपाने के लिए अब उलटी काल्पनिक कहानियाँ बनाने में लगे हुए है और अपनी जाटलैंड साईट पर झूठ का मायाजाल रचते रहते हैं.
इस प्रकार हम देखते हैं कि किस प्रकार किस प्रकार जैसलमेर के भाटी राजपूतो से सिद्धू बराड़ भट्टी जाट बने और इन भाटी राजपूतो के जाट वंशजों ने किस प्रकार पटियाला,नाभा,जीन्द,फरीदकोट,कैथल में अपनी रियासते बनाई,
इन सबके अतिरिक्त कपूरथला का राजवंश अहलुवालिया कलाल जाति का है और यह वंश भी अपनी उत्पत्ति भाटी राजपूतो से मानता है,
स्वयं पंजाब के महाराजा रंजीत सिंह जिनके पूर्वज सांसी जाति के थे और बाद में शक्तिशाली होने के कारण इस वंश के साथ दुसरे सिख जाट मिसलदारो ने शादी विवाह किये जिससे यह सांसी जाति से निकलकर जाटों में शामिल हो गये,यह सांसी जाति अपनी उत्पत्ति सांसमल नाम के भाटी राजपूत से मानती है,इनका वंश सांसी जाति से निकलकर जाटों में संधावालिया कहलाया.
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि 17 वी सदी के बाद जाट नामक कृषक जाति में जितने भी बड़े राजवंश हुए उन सबके पूर्वज राजपूत ही थे,जिन्होंने किसी कारण जाट महिलाओ से शादी की और उससे उत्पन्न संतान से जाटों में नये वंश चले जिन्होंने अपने अंदर बह रहे राजपूती रक्त का मान रखते हुए रियासतों की स्थापना की .........
=====Patiala Royal Families and Bhatti Jatts=====
The Royal family of Patiala claims their descendancy from Rao Jaisal, the Bhati founder of Jaisalmer, The third son of Rao Jaisal , Rai Hem, left the family domains after the usual quarrel and carved out a small principality for himself around Bhatinda and Bhatner. It is said his successor in the fourth degree, Khiwa, fell on hard times and was forced to move to Kot Ladwa, where he married a girl from the Jat Basehra caste, against the clan traditions of the Rajputs. The family was then degraded from the Rajput community and were accepted by Jats.Thereafter many quarrels ensued between his descendants at the Bhattis. The Mughals appointed his descendant Mehraj in 1526. This office became hereditary amongst his descendants until Phul, the Sikh ancestor of the dynasty, which came to rule over Patiala, Jind and Nabha.
The Maharaj Patiala (head of the state), still uses Yaduvansh Kulbhushan as his title. Colonel H.H. Farzand-i-Khas-i-Daulat-i-Inglishia, Mansur-i-Zaman, Amir ul-Umara, Maharajadhiraja Raj Rajeshwar, 108 Sri Maharaja-i-Rajgan, Maharaja Amarinder Singh, Mahendra Bahadur, Yadu Vansha Vatans Bhatti Kul Bushan, is the present Maharaja Saheb of Patiala and former Chief Minister of Punjab.
Many other associated Bhati Rajput chieftain also got converted in to Jats after the arise of Sikhism in the region. They are the brothers of Tanvi / Tohni shakh of Bhati Rajputs in the area. The Bhati royal family of Sirmaur (Nahan) state are cousins of Bhatti Sikhs of Patiala ruling family , who were able to maintain their purity , culture and traditons.
The Geneology or Vanshawali of the family is as follows:
Maha Rao Jaisal, founder of Jaisalmer
I
Rai Hem
I
Jaidrath (Jundar)
I
Pate Rao
I
Mangal Rao
I
Anand Rao
I
Khiva Rao
m
Rajo
(daughter of the Saräo-Basehrä Jat Chief of Dulkot)
I
Sidhu
(ancestor of the Sidhu Jat clan)
I
Bhur
I
Bir
I
Satrajat (Satra)
I
Jertha (Charta)
I
Mahi
I
Kala (Gola)
I
Mehra
I
Hamira
I
Rao Brar
I
Paur
I
Bairi
I
Kayen (Kao)
I
Baho
I
Sanghar
(k. at Panipat, 21st April 1526)
I
Chaudhuri Wariyam [Beeram], of Neli
(k. 1554)
I
Chaudhuri Mehraj [Maharaj]
I
Chaudhuri Satu [Suttoh]
(k. alongside his grandfather, 1554)
I
Chaudhuri Pakhu [Pukko]
I
Chaudhuri Mohan, of Mehraj
• Chaudhuri Mohan, of Mehraj, younger son of Chaudhuri Pakhu [Pukko], confirmed as Chaudhruri in succession to his father, but fell into arrears and fled to his relatives in Hansi and Hissar. Collected a large force, returned and defeated the Bhattis, near Bedowli. Founded Mehraj in honour of his great-grandfather, on the advice of the sixth Guru, Har Govind. He married two wives. He was with his grandfather along with his sons, fighting the Bhattis, at Bedowli, 1618, having had issue, six sons:
o 1) Rup Chand (s/o the first wife). Married Mai Ambi, a Jitani Jat lady, having had issue, two sons:
a) Sandali.
b) Chaudhuri Phul, of Phul. b. 17th April 1603, educ. by Samerpuri. Founded the village of Phul, 1627. m. (first) Chaudhurani Bali Kaur, daughter of Jassa Singh, zamindar of Dilami, in Nabha. m. (second)Chaudhurani Raji Kaur, daughter of Dadu, of Sidhana. He was k. (accidentally burned on a pyre while feigning sleep), at Phul, 29th July 1652, having had issue, seven sons and at least one daughter (founder of the Phulkian family):
The Phul is considered to be the predecessor of Phulkerian Bhati branch. Phul left six sons, of whom Tiloka was the eldest, and from him are descended the families of Jind and Nabha. From Rama, the second son, sprang the greatest of the Phulkian houses, that of Patiala besides Bhadaur, Kot duna and Malaudh . In 1627 Phul founded and gave his name to a village which was an important town in the State of Nabha. His two eldest sons founded Bhai Rupa while Rama also built Rampur. The last named successfully raided the Bhattis and other enemies of his line. He then obtained from the Muhammadan governor of Sirhind the intendancy of the Jangal tract. The other four sons succeeded to only a small share of their father's possessions.Bir Singh laid foundation stone of Village Bangi Rughu near Talwandi Sabo in district bathinda in memory of his grandfather Raghu of Jiundan.
The Phulkian Sardars had always been on the right side of the Mughal government in Delhi. Patiala, Jind, and Nabha. They received royal titles from the Mughals. They came under the loose domination of the new military machine of Mahadji Sindhia and later under the British who took Delhi in 1803. Phulkian sardars approached the British government for seeking protection against the rising power of Maharaja Ranjit Singh. Although Ranjit Singh was very moderate towards the Phulkian rajas, in due course, with his rising power, they became suspicious of his designs and hence sought British protection. Accordingly, the leaders of the Cis-Satluj Sikh states, including the rulers of Patiala, Nabha and Jind, sought the protection of British. This was agreed in return for a pledge of their loyalty to the protectors and ultimately lead to Ranjit Singh having to sign theTreaty of Amritsar on 25 April 1809, which prevented him from expanding his territories south of the Sutlej river.
Under the British Empire, honours or rewards bestowed on the native princes of India, grants were made to the maharaja of Patiala and the rajas of Jind and Nabha consisting of, first, a sunnud from the Governor General confirming to him and his heirs forever his possessions and all the privileges attached to them and secondly, the recognition of his right, in failure of direct heirs, to adopt a successor from the Phulka family. This right of adoption was granted to the Chiefs of Patiala, Jind, and Nabha in 1860, together with the further concession that, in the event of the chief of any one state dying without male issue and without adopting a successor, the chiefs of the other two, in concert with the political agent, could choose a successor from among the Phulkian family. Succession in those cases was subject to the payment to the British government of a nazarana or fine equal to one-third of the gross revenue of the state. The political agent for the Phulkian states and Bahawalpur was at Patiala.
The eleven of the descendants of Phul of the Phulkian family in the Cis-Sutlej States who had rank, position and were entitled seats to attend the durbars of the Viceroy 1864-1885 were:
1. Maharaja Mahindar Singh, Patiala;
2. Raja Raghbir Singh, Jind;
3. Raja Bhagwan Singh, Nabha;
4. Sardar Sir Attar Singh, Bhadour;
5. Sardar Kehr Singh, Bhadour;
6. Sardar Achhal Singh, Bhadour;
7. Sardar Uttam Singh Rampuria, Malaud;
8. Sardar Mit Singh, Malaudh;
9. Sardar Hakikat Singh,Ber, Malaud;
10. Sardar Diwan Singh and
11. Sardar Hira Singh, Badrukhan.
The Bhadour chiefs sat in durbar as feudatories of Pattiala; the Badrukhan chiefs of Jhind, and the Malaudh sirdars as British Jagirdar chiefs
Sources:============
Sirdar Attar Singh, Chief of Bhuddour. The House of Phool, Being a Genealogical Table of the Family of the Cis Sutledge Chiefs of the Punjab. September 1872 (BL 85/14000 R 23).
Bhagat Singh. A History of the Sikh Misals. Publication Bureau, Punjabi University, Patiala, 1993.
G.L. Chopra. Chiefs and Families of Note in the Punjab. 3 Volumes. Superintendent of Government Printing, Lahore, 1940.
G.L. Chopra. Chiefs and Families of Note in the Punjab. 3 Volumes. Superintendent of Government Printing, Lahore, 1940.
Major W.L. Conran and H.D. Craik. Chiefs and Families of Note in the Punjab. 3 Volumes. Government of the Punjab, Lahore, 1910-1911.
Duleep Singh Papers, India Office Records (MSS. Eur. E337), Oriental and India Office Collection, British Library, London.
Sir Lepel Henry Griffin. The Panjab Chiefs: Historical and Biographical Notices of the Principal Families in the Territories Under the Panjab Government. Lahore, 1865.
Sir Lepel Henry Griffin & Charles Francis Massy (ed). The Panjab chiefs : historical and biographical notices of the principal families in the Lahore and Rawalpindi divisions of the Panjab. Civil and Military Gazette Press, Lahore, 1890.
S. Ranga Iyer. Diary of Late Maharaja of Nabha. Indian Daily Telegraph, Lucknow, 1924.
List of Ruling Princes and Chiefs, Leading Men and Principal Officials. Punjab States Agency. Manager of Publications, Delhi, 1938.
Memoranda of Information regarding certain Native Chiefs. Volume II, Madras, Bengal, North-West Provinces, Punjab. IOR (L/PS/20/F76/2), Oriental & India Office Collection, British Library, St Pancras, London.
Kirpal Singh. Life of Maharaja Ala Singh of Patiala and His Time, Based on original sources. Sikh History Research Department, Khalsa College, Amritsar, 1954.
Nahar Singh. Raja-i-Rajgan Maharaja Amar Singh of Patiala, etc. Lahore, 1935.
K. Natwar Singh. The Magnificient Maharaja. Harper Collins Publishers India Pvt. Ltd., New Delhi, 1998.
Northern India Who's Who. Lahore, Punjab, 1942.
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जय राजपूताना.........
good infor.
ReplyDeleteअधूरा ज्ञान खतरनाक जैसे बंदर के हाँथ में उस्तरा हो तो वो अपनी शेविंग करते करते अपने नाक काट सकता है उपर लिखित राजा की कोई जाति नहीं अगर वो जाति वंश की बात करते हैं तो वो सिख नहीं और गुरू गोविंद सिंह के आदेश नहीं मानते गुरु जी सभी जाति वर्ण व्यव स्था खत्म कर सिख बनाए जाति वर्ण वादी व्यवस्था एक ब्रामन वादी सिस्टम है जबकि सिख गुरु की परंपरा हैहैं
DeleteGalat
ReplyDeleteSabhi kaum pehle Arya the bad me wo apne apne karmo see brahmin,Rajput,Bania,Jatav bane
ReplyDelete😂😂 मतलब कुछ भी बक देता है । पहले खुद का इतिहास पढ बाद में दूसरों का बताना 👇👇👇
ReplyDelete•जस्टिस कैम्पबैल - प्राचीन काल की रीति रिवाजों ( आर्यों की ) को मानने वाले जाट , नवीन हिन्दू धर्म के रिवाजों को मानने पर राजपूत है । जाटों से राजपूत बने हैं न कि राजपूतों से जाट ।
•विद्वान् नेशफिल्ड - “जाटों से राजपूत हो सकते हैं परन्तु राजपूतों से जाट कभी नहीं हो सकते हैं ।”
•प्रो.हेत सिह बघेला “उत्तरी भारत का इतिहास” नामक पुस्तक मे लिखते है कि मुस्लिम विजताओ ने पराजित राजाओ को राजपूतो की संज्ञा दी।
•राजपूत इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत राजपूताने का इतिहास पृष्ठ 8 पर लिखते है की मुस्लिमो के आने के बाद ही शासको की जातियों के लिए राजपूत शब्द प्रयोग में आने लगा जबकि तोमरो पांडवो और जाटों का इतिहास आठवी शताब्दी से पहले भी अस्तित्व में था |
•भारतीय संस्कृति के रक्षक पुस्तक में रतनलाल वर्मा लिखते है| मुस्लिमकाल आने से पहले राजपूत जाति का अस्तित्व सिद्ध करना असंभव है | जबकि तोमरो पांडवो और जाटों का इतिहास आठवी शताब्दी से पहले भी अस्तित्व में था |
•इतिहासकार विलियम स्मिथ के अनुसार राजपूत प्राचीन जाट, अहीर,गुर्जर, मीणा जाति के वंशज है|
•इतिहासकार अली हसन चौहान लिखते है मुस्लिमकाल में जिस किसी भी स्थानीय व्यक्ति को विदेशी मुस्लिम बादशाहो ने जागीरे दी उसको उन्होंने राजपूत कहा इसलिए वर्तमान राजपूत जाति भिन्न भिन्न जातियों मिश्रण है |
•इतिहासकार ओझा भी स्वीकार करते है की राजपूत जाति मुग़ल काल में अस्तित्व में आयी
•मि.आर.जी लेथम के ‘एथनोलोजी ऑफ इण्डिया’ पृष्ट के एक नोट से जाट-राजपूत के सम्बन्ध में इस तरह प्रकाश पड़ता है - एक राजपूत प्राचीन धर्म का पालन करने वाला एक जाट हो सकता है।
•हिस्टोरियन आर एस जून के अनुसार - जाट गोत्र चौहान,सोलकी (सोरौत),ग्रेवाल,तन्वर(तोमर) के कुछ लोग 12 वि सदी के आस नवीन बने राजपूत सघ मे सम्मलित हो गए।
•इतिहासकार ठाकुर देशराज जी 1964 में प्रकाशित पुस्तक बीकानेरीय जागृति के अग्रदूत के पेज 9 पर लिखते है की जब दिल्ली से तोमरो का राज्य चला गया तब कुछ तोमरो ने राजपूत संघ में दीक्षा लेली और जो राजपूत संघ में दीक्षित नहीं हुये वे जाट ही रहे।
•इतिहासकार परमेश शर्मा के अनुसार तोमर जाटों से ही तोमर राजपूतों की उत्पत्ति हुई है वो लिखते है अनंगपाल तोमर जाट सम्राट था।
•जाटों में ऋषि गोत्र नहीं होता है ऋषि गोत्र राजपूतो में ही मिलता है क्योंकी जिस ऋषि के सानिध्य में वो अग्नि कुंड से यज्ञ दुवारा जाट ओर अन्य जातियो से उनको राजपूत सघ मे मिलाया गया वो ऋषि उन के लिये आदरनीय हो गया इसलिए तोमर जाट का कुछ भाग अग्निकुंड यज्ञ के बाद ही अन्य जातियों में मिल गया ।
•कर्नल जेम्स टॉड राजस्थान इतिहास के रचयिता -
(i) राजस्थान में राजपूतों का राज आने से पहले जाटों का राज था ।
(ii) एक समय राजपूत जाटों को खिराज (टैक्स) देते थे ।
•मि० आर्जलेंथम ( एबोनोलोजी आफ इण्डिया ) " - रक्त में जाट परिवर्तन किए हुए राजपूत थे न अधिक और न कम , किन्तु अदल - बदल है । राजपूत अगर प्राचीन धर्म का पालन करें तो जाट हो सकता है ।
•जेपी जैसवाल भारतीय राजनेता और इतिहासकार 1881 से लेकर 1937 तक जो खुद एक राजपूत थे!और अपनी जिंदगी में 120 रिसर्च करके उसको 11 किताबों की 11 वॉल्यूम में लिखा है उन्होंने भी विक्रमादित्य पंवार और धार के पंवार राजाओं को जाट वंश का बताया है जो बाद में राजपूत संघ में मिल गए ।
•राजपूतों के इतिहास में जो खुद जोधपुर के राजा राठौड़ों ने लिखवाया है राजपूत इतिहास कर्नल टॉड द्वारा उसमें साफ लिखित है कि आबू के परमार पंवार जाट राजा थे जो बाद में राजपूत बन गए ।
Abe Kya jhoothi faila rakha h tum jaaton me kabhi to koodh ko Krishna ke to kabhi mahadev ke vansaj batatate hi chal bhag bhoshd
DeleteShi kha jaat shoodhr jaati hai ya apne ko kitna bhi Kshatriya khe pr isse ithass nhi badal jata. Yaduvanshi Kshatriyao ka ithass 5,200 purana h.
Deleteजाट शिव के वंशज कहाते हैं फ़िर कृष्ण के भी वंशज कहाते हैं मतलब साफ हैं की ये सच हैं और कृष्ण भी महादेव के वंशज हो तो आपको को आपत्ति है क्या??
DeleteRajput jaati aaj ki nahi balki ye bhagwan Raam ki suryawansh , krishna ki chandrawansh , aur paandavo ki agniwansh aur rishiyoo ki tapsaya se utpaan hui satyug se hi apna Parcham lahrate hui aaj bhi apni Shaan se jaani aur apni maryaada poorn , apne vachaan ke liye aur lauk Kalyan ke liye aur apne veer paraakaram ke liye jaani jaati hai iss raajwansh ki utpatti par koi bhi Bina soche samjhe ungli naa uthaaye kuoki sadiyo se hi inhone tyaag , balidaan aur sangghraash kia hai Jai shree Raam
ReplyDeleteJai hind
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